मंदिरों में भगवान शिव की पूजा करते समय आँखें बंद करने का क्या महत्व है?
प्रश्नकर्ता (युवा): गुरुदेव, जब हम मंदिरों में भगवान शिव की पूजा करते हैं, तो अक्सर देखा जाता है कि हम अपनी आँखें बंद कर लेते हैं। क्या इसका कोई विशेष अर्थ है? क्या यह केवल एक परंपरा है या इसके पीछे कोई आध्यात्मिक कारण भी है?
श्री शिवानंद महाराज: वत्स, यह कोई मात्र परंपरा नहीं, बल्कि अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक विज्ञान है। जब तुम भगवान शिव के समक्ष अपनी आँखें बंद करते हो, तो वास्तव में तुम बाह्य संसार से ध्यान हटाकर अपने अंतःकरण की यात्रा पर निकलते हो। सनातन धर्म कहता है — वह परमात्मा अंदर भी है, बाहर भी है, पर उसे देखने के लिए आँखों से अधिक ‘दृष्टि’ चाहिए।
युवा: पर गुरुदेव, मंदिर तो स्वयं दिव्यता का प्रतीक है। वहाँ जब हम भगवान की मूर्ति के सामने खड़े होते हैं, तो आँखें क्यों बंद करें? क्या भगवान मूर्ति में नहीं हैं?
महाराज: प्रश्न सार्थक है। मूर्ति में भगवान हैं — यह सत्य है। परंतु मूर्ति स्मरण बिंदु है। उसे देखना तुम्हारे मन को स्थिर करता है, पर असली भक्ति तब प्रारंभ होती है जब तुम मूर्ति से आगे बढ़कर मूर्तिकार की चेतना से जुड़ते हो। जब आँखें बंद होती हैं, तब वह ‘दर्शन’ होता है जो ‘नयन’ से नहीं, ‘ज्ञान’ से होता है।
युवा: क्या इस विचार का कोई उल्लेख वेद या उपनिषदों में भी मिलता है?
महाराज: अवश्य। छांदोग्य उपनिषद कहता है — जैसे एक दीपक संपूर्ण कक्ष को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा के भीतर स्थित परमात्मा सम्पूर्ण चेतना को प्रकाशित करता है। जब तुम आँखें बंद करते हो, तब तुम अपने भीतर उस ज्योति को देखने का प्रयत्न करते हो, जो बाहर की रोशनी से अधिक दिव्य है।
युवा: गुरुदेव, आँखें बंद करके ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है। मन भटकता है। ऐसे में शिव को अनुभव कैसे करें?
महाराज: वत्स, शिव केवल एक देवता नहीं, एक अवस्था हैं — शिवत्व की अवस्था। मन का भटकना स्वाभाविक है, पर अभ्यास से ही तो साधना सिद्ध होती है। योगसूत्र में कहा गया है —योग मन की चंचलताओं की निवृत्ति है। जब तुम बार-बार प्रयास करते हो, आँखें बंद कर भीतर उतरते हो, तो धीरे-धीरे मन भी शान्त होने लगता है, और वहाँ तुम्हें शिव की उपस्थिति का अनुभव होता है — नाद के रूप में, शून्य के रूप में, या चैतन्य के रूप में।
युवा: क्या इस अवस्था में पहुँचना केवल योगियों के लिए संभव है?
महाराज (मुस्कुराकर): नहीं वत्स। हर वह व्यक्ति जो श्रद्धा से भरकर आँखें बंद करता है, वह शिव की ओर पहला कदम बढ़ा रहा होता है। यह कोई साधु-संतों का विशेषाधिकार नहीं। तुम्हारी भावना, तुम्हारी सरलता और तुम्हारा समर्पण ही तुम्हें शिव तक पहुँचाते हैं।
युवा: गुरुदेव, आपने कहा कि शिवत्व एक अवस्था है। कृपया स्पष्ट करें कि इस अवस्था से हमारा जीवन कैसे बदलता है? आँखें बंद करने और भीतर जाने का हमारे दैनिक जीवन से क्या संबंध है?
श्री शिवानंद महाराज: वत्स, बहुत अच्छा प्रश्न पूछा तुमने। ध्यानपूर्वक सुनो — शिव का अर्थ है शून्यता, निःशब्दता, शिवत्व यानी ऐसा भाव जहाँ अहंकार विलीन हो जाए। जब तुम आँखें बंद करते हो, तब तुम बाह्य संसार के शोर से बाहर निकल कर आत्मा की मौन ध्वनि सुनते हो। यही मौन — यही शिव है।
संत कहते हैं — मौन ही परम बल है। जब तुम स्वयं को समझने लगते हो, तभी संसार को सही दृष्टि से देख पाते हो। यह अंतर्मुखता ही शिव की ओर यात्रा है।
युवा: क्या इसका अर्थ यह है कि आँखें बंद करके हम केवल ध्यान करें और संसारिक कार्यों से दूर रहें?
महाराज (सहजता से हँसते हुए): नहीं वत्स, शिव केवल ध्यानस्थ योगी नहीं हैं, वे गृहस्थों के आराध्य भी हैं। उन्होंने पार्वती से विवाह किया, गणेश और कार्तिकेय का पालन-पोषण किया। वे हमें सिखाते हैं कि ध्यान और कर्तव्य — दोनों में संतुलन हो सकता है। जब तुम आँखें बंद कर शिव को याद करते हो, तब तुम शिवत्व को अपने जीवन में आमंत्रित कर रहे होते हो — वह भाव जो तुम्हें भीतर से शांत, स्थिर और स्पष्ट करता है।
युवा: क्या केवल शिव मंदिर में ही आँखें बंद करने का महत्व है?
महाराज: नहीं। यह अभ्यास हर जगह काम आता है। तुलसीदासजी कहते हैं — "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।"
जब मन स्थिर हो जाता है, तब ही जीवन में सच्ची जीत मिलती है। मंदिर केवल अभ्यास की जगह है — जीवन का हर क्षण, हर परिस्थिति, हर कार्य मंदिर जैसा पवित्र बन सकता है यदि तुम अपने भीतर के शिव को जागृत रखो।
युवा: गुरुदेव, जब हम आँखें बंद करते हैं, तब हमारी कल्पना चलती है। क्या वह भी भक्ति का रूप है?
महाराज: अवश्य। कल्पना वह शक्ति है जिससे 'दर्शन' घटित होता है। संत सूरदास अंधे थे, फिर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के बाल्यलीला का ऐसा वर्णन किया जो आज भी लोगों के मन में जीवंत है। जब श्रद्धा से भरी कल्पना होती है, तो वह तुम्हें शिव के स्वरूप की अनुभूति देती है — उसमें रंग, शब्द और रूप नहीं होते, उसमें भाव होता है, और भाव ही शिव की सच्ची प्रार्थना है।
युवा: क्या कोई सरल अभ्यास है जिससे हम इस अंतर्मुखता को विकसित कर सकें?
महाराज: हां, एक अभ्यास बताता हूं जिसे ‘त्रिकाल ध्यान’ कहते हैं:
• सुबह आँखें बंद करके कल्पना करो कि भगवान शिव तुम्हारे भीतर ऊर्जा के रूप में जाग रहे हैं।
• दोपहर को, किसी व्यस्त समय में एक मिनट के लिए आँखें बंद कर के उनकी शांति को स्मरण करो।
• रात्रि को, सोने से पहले आँखें बंद कर यह अनुभव करो कि उन्होंने तुम्हारे दिनभर के कर्मों को अपने जटाओं में समेट लिया है।
यह अभ्यास तुम्हें धीरे-धीरे बाहर की चंचलता से भीतर की स्थिरता तक ले जाएगा।
युवा: गुरुदेव, क्या प्राचीन ग्रंथों में इसका कोई उदाहरण मिलता है जहाँ किसी ने केवल नेत्र मूंदकर ईश्वर को पाया हो?
श्री शिवानंद महाराज: हाँ वत्स, ऐसे कई उदाहरण हैं। उपनिषदों में नचिकेता, महाभारत में भीष्म, रामायण में भरत, और पुराणों में ध्रुव — सभी ने आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर के साक्षात्कार के लिए अंतर्मुख होने का मार्ग अपनाया।
उपनिषद् का एक प्रसिद्ध मंत्र है: “ईश्वर को नेत्रों से नहीं, मन की निर्मलता से देखा जा सकता है।”
ध्रुव ने जब जंगल में बैठकर नेत्र बंद कर ईश्वर का स्मरण किया, तब भगवान नारायण उनके अंतःकरण में प्रकट हुए। इसी तरह, शिव को भी बाहरी रूप से नहीं, भीतर की शुद्धि और शांति से अनुभव किया जा सकता है।
युवा: गुरुदेव, यह बात गूढ़ तो है, पर आज के जीवन में, जहाँ युवा हर समय मोबाइल, सोशल मीडिया और प्रतिस्पर्धा में उलझे हैं — वहाँ कैसे वे इस अंतर्मुखता को विकसित कर सकते हैं?
महाराज (गंभीर होकर): वत्स, यही तो आज की सबसे बड़ी चुनौती है। बाहर की दुनिया जितनी तेज़ हो गई है, भीतर की दुनिया उतनी ही उपेक्षित। इसलिए आज युवाओं को संतुलन की साधना करनी होगी। तुम्हारा मोबाइल, तुम्हारी जिम्मेदारियाँ, सब आवश्यक हैं — पर हर दिन 5-10 मिनट ऐसे निकालो जहाँ तुम सिर्फ अपने भीतर देखो — बिना स्क्रीन, बिना आवाज़, बिना विचार।
आचार्य चाणक्य कहते हैं: “मन ही बंधन और मोक्ष दोनों का कारण है।” जब मन बाहर दौड़ता है — बंधन है। जब भीतर लौटता है — वही मोक्ष है।
युवा: क्या हमारी संस्कृति में आँखें बंद करने के पीछे कोई प्रतीकात्मकता भी है?
महाराज: बहुत सुंदर प्रश्न। हाँ, आँखें बंद करना केवल क्रिया नहीं, प्रतीक भी है —
• यह त्याग का प्रतीक है — तुम कुछ पल के लिए संसार का परित्याग करते हो।
• यह विश्वास का प्रतीक है — जब तुम आँखें बंद कर किसी को याद करते हो, तो वह पूर्ण विश्वास होता है।
• यह एकत्व का प्रतीक है — जब तुम बाह्य रूपों से अलग होकर केवल ‘भाव’ से जुड़ते हो।
भगवान शिव स्वयं त्रिनेत्रधारी हैं — तीसरी आँख ज्ञान का प्रतीक है। जब तुम दो आँखें बंद करते हो, तब तीसरी — अंतर्दृष्टि की आँख — जाग्रत होती है।
युवा: गुरुदेव, यह विषय बहुत सुंदर और गहन है। क्या आप कोई उपमा या दृष्टांत बता सकते हैं जिससे हम इसे और सरल रूप से समझ सकें?
महाराज (मुस्कराते हुए): अवश्य। मान लो तुम्हारे मन में एक दर्पण है — यदि वह दर्पण धूल से ढँका हो, तो उसमें तुम अपना प्रतिबिंब नहीं देख सकते। तुम कितनी भी बार उसे बाहर से साफ़ करो, लाभ नहीं होगा — जब तक तुम भीतर जाकर उसकी सतह नहीं पोंछते।
बंद आँखें उस भीतर की सफ़ाई का पहला चरण हैं।
कथा: "अंतर्दृष्टि – एक युवा की यात्रा"
स्थान: बेंगलुरु का एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज
पात्र:
• आदित्य – एक होशियार लेकिन तनावग्रस्त छात्र
• प्रोफेसर अनंत – एक वृद्ध प्रोफेसर, जो ध्यान और भारतीय दर्शन में गहरी रुचि रखते हैं
आदित्य उन लाखों छात्रों में से एक था जो हर समय किसी लक्ष्य की ओर दौड़ते रहते हैं। टॉप रैंक, हाई पैकेज, स्टार्टअप आइडिया… सब कुछ उसके एजेंडा में था, बस एक चीज़ गायब थी — शांति।
एक दिन, जब उसकी आँखें मोबाइल स्क्रीन पर झुकी थीं और कानों में ईयरबड्स थे, तभी प्रोफेसर अनंत पास आकर बोले, “बेटा, क्या तुम दो मिनट के लिए अपनी आँखें बंद कर सकते हो?”
आदित्य ने अजीब निगाहों से देखा, “सर? अभी? क्यों?”
“बस एक प्रयोग समझो,” प्रोफेसर मुस्कराए।
अनिच्छा से ही सही, पर आदित्य ने आँखें मूँद लीं।
“अब अपने भीतर देखो। कुछ आवाज़ें सुन रहे हो? विचार दौड़ रहे हैं?”
“हाँ सर… ढेर सारे।”
“अब उन विचारों को मत पकड़ो। उन्हें बहने दो, जैसे बादल बहते हैं।”
आदित्य चुप रहा… दो मिनट बीते… जब उसने आँखें खोलीं, तो चेहरा कुछ हल्का था।
“कैसा लगा?”
“थोड़ा… शांत।”
प्रोफेसर ने मुस्कराकर कहा, “यही ‘अंतर्दृष्टि’ है बेटा। जब तुम आँखें बंद करते हो, तभी भीतर की आँख खुलती है।”
आदित्य ने धीरे-धीरे इस अभ्यास को अपनाया। हर दिन वह पाँच मिनट मंदिर के कोने में बैठता, आँखें बंद करता और शिव का नाम जपता। वह न तो मूर्ति देखता, न ही आरती — बस अपने भीतर उतरता।
कुछ सप्ताहों में, उसका स्वभाव बदलने लगा — अब उसमें धैर्य था, स्पष्टता थी, और एक विचित्र सी आंतरिक स्थिरता।
मंत्र: "जो देखता है वह बाहर देखता है। जो जानता है वह भीतर देखता है।"
इस प्रकार, एक आधुनिक युवा ने जाना कि केवल नेत्र बंद करने से ही वह दृष्टि प्राप्त होती है जो जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने की क्षमता देती है।
आपका स्वागत है सनातन वाणी में – शाश्वत ज्ञान की स्वरधारा।
मेरा सबस्टैक ब्लॉग: https://substack.com/@authordilipkumarbhargava
मेरा यूट्यूब चैनल: https://www.youtube.com/@dilipkumarbhargavaauthor
मेरी ई-बुक (अमेज़न पर उपलब्ध): https://tinyurl.com/3k28mdnu
मेरा लेखक पृष्ठ: https://tinyurl.com/yu32dduu
कृपया मेरे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करें।
मेरे सभी अन्य वीडियो यहां देखें ➤ https://tinyurl.com/47ux4yh6
यदि आपको यह उपयोगी लगा हो, तो आपको मेरी 'सनातन विज़डम' पर आधारित ई-बुक अवश्य पसंद आएगी — इसमें इन शिक्षाओं की गहराई और उनके जीवन में व्यावहारिक उपयोग को विस्तार से बताया गया है। यह अभी किंडल स्टोर पर उपलब्ध है। और भी आध्यात्मिक व व्यावहारिक ज्ञान, जो सनातन धर्म पर आधारित है, प्राप्त करने के लिए कृपया मुझे Quora और Substack पर फॉलो करना न भूलें। सभी लिंक ऊपर दिए हुए हैं।
Why we close eyes while praying# Spiritual meaning of closing eyes in temple# Lord Shiva prayer meaning# Sanatan Dharma secrets# Significance of prayer in Hinduism# Shiva temple rituals explained# Power of silence in Hinduism# Meditation in Sanatan Dharma# Eyes closed prayer spiritual meaning# Science behind Hindu rituals# Why do Hindus close their eyes while praying to Lord Shiva# What happens when we close our eyes in meditation# Importance of Antar-Mukh (inner gaze) in Sanatan Dharma# Symbolism behind prayer posture in Hindu temples# Vedic explanation of inner prayer#